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Dehri | Geetu Garg
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00:02:29
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देहरी | गीतू गर्ग बुढ़ा जाती है मायके की ढ्योडियॉंअशक्त होती मॉं के साथ..अकेलेपन कोसीने की कसमसाहट में भरने की आतुरता निढाल आशंकाओं में झूलती उतराती..थाली में परसी एक तरकारी और दालदेती है गवाही दीवारों पर चस्पाँ कैफ़ियत कीअब इनकी उम्र कोलच्छेदार भोजन नहीं पचता मन को चलाना इस उमर में नहीं सजता होंठ भीतर ही भीतर फड़फड़ाते हैं बिटिया को खीर पसंद हैऔर सबसे बाद में करारा सा पराठाँवो प्यारी मनुहार बाबुल कीखो गई कब कीसमय ने किस किस को कहॉं कहॉं बाँटा..मॉं !तू इतना भी चुप मत रहन होने दें ये सन्नाटे खुद पर हावीउमर ही बढ़ी हैपर जीना है अभी भी बाक़ी इस घर की बगिया कोतूने ही सँवारा हैहर चप्पे पर सॉंस लेतास्पर्श तुम्हारा है बरसों पहले छोड़ी देहरी अब भी पहचानती हैबूढ़ी हो गई तो क्या पदचापों को खूब जानती है माना कि ओहदों की पारियाँ बदल गई है रिश्तों की प्रमुखता हाशियों पर फिसल गई है पर जाने से पहले यों जीना ना छोड़ना अधिकार की डोरी न हाथों से छोड़ना..

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